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M.P. PSC ( With History )

This blog is dedicated to all candidates who are willing to appear in M.P. P.S.C. examination with History subject.

Wednesday, September 3, 2008

वैदिक काल - भारत में आर्यों का आगमन

आरम्भ: हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद भारत में एक नई सभ्यता का आविर्भाव हुआ। इस सभ्यता की जानकारी के स्रोत वेदों के आधार पर इसे वैदिक सभ्यता का नाम दिया गया। वैदिक काल को दो भागों ऋग्वैदिक काल ( 1500- 1000 ई. पू. ) तथा उत्तर वैदिक काल ( 1000 - 700 ई. पू. ) में बांटा गया क्षेत्र।

भौगोलिक क्षेत्र : ऋग्वैदिक काल में आर्य सप्त सिन्धु क्षेत्र में रहते थे। यह क्षेत्र वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा के कुछ भागों में पड़ता है।
  • ऋग्वेद में 40 नदियों, हिमालय (हिमवंत ) त्रिकोता पर्वत, मूंजवत ( हिंदु-कुश पर्वत ) का उल्लेख है। गंगा नदी की चर्चा एक बार, यमुना का तीन बार उल्लेख है। विंध्यपर्वतमाला की चर्चा नहीं हुई है। रावी नदी के तट पर 'दाशराज्ञ युद्ध' ( सुदास एवं दिवोदास ) के बीच हुआ था।

वैदिकसाहित्य:
  • वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है।
  • वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है।
  • वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
  • ऋग्वेद विश्व का प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है।
ऋग्वेद:
  • ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है
  • यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 सूक्त हैं।
  • इसकी भाषा पद्यात्मक है।
  • ऋग्वेद में 33 देवी-देवतों का उल्लेख मिलता है।
  • प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी सावित्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है।
  • ' असतो मा सद् गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।
  • ऋग्वेद की रचना संभवतः पंजाब में हुई थी।
  • ऋग्वेद में मंत्र रचियताओं में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि .
यजुर्वेद: यजु का अर्थ होता है यज्ञ।
  • यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है।
  • इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है।
  • इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है।
  • यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है।
  • यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद।
  • कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता।
  • यह 40 अध्याय में विभाजित है।
  • इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है।s
सामवेद: सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।
  • इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं।
  • सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।
  • सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।

अथर्ववेद: अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी।
  • इसमें प्राक्- ऐतिहासिक युग की मूलभूत मान्यताओं, परम्पराओं तथा अंधविश्वासों का चित्रण है।अथर्ववेद 20 अध्यायों में संगठित है। इसमें 731 सूक्त एवं 6000 के लगभग मंत्र हैं।
  • इसमें रोग तथा उसके निवारण के साधन के रूप में जादू, टोनों आदि की जानकारी दी गयी है।
  • अथर्ववेद की दो शाखाएं हैं- शौनक और पिप्लाद।
  • इसे अनार्यों की कृति माना जाता है।
ब्राह्मण: ब्राह्माण ग्रंथों की रचना संहिताओं के कर्मकांड की व्याख्या करने के लिए की गई थी।
  • यह मुख्यतः गद्य शैली में लिखित है।
  • ब्राह्मण ग्रंथों से हमें बिम्बिसार के पूर्व की घटना का ज्ञान प्राप्त होता है।
  • ऐतरेय ब्राह्मण में आठ मंडल हैं और पाँच अध्याय हैं। इसे पञ्जिका भी कहा जाता है।
  • ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम प्राप्त होते हैं।
  • शतपथ ब्राह्मण में गंधार, शल्य, कैकय, कुरु, पांचाल, कोसल, विदेह आदि का उल्लेख होता है।
  • शतपथ ब्राह्मण ऐतिहासिक दृष्टी से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ब्राह्मण है।
  • सर्वाधिक परवर्ती ब्राह्मण गोपथ है।
आरण्यक: आरण्यक की रचना जंगल में ऋषियों द्वारा की गई थी।
  • इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहस्यवाद, प्रतीकवाद, यज्ञ और पुरोहित दर्शन है।
  • वर्तमान में सात अरण्यक उपलब्ध हैं।
  • सामवेद और अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है।
उपनिषद : उपनिषद प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है।
  • इसमें मुख्य रूप से शास्वत आत्मा, ब्रह्म, आत्मा- परमात्मा के बीच सम्बन्ध तथा विश्व की उत्पत्ति से सम्बंधित रहस्यवादी सिधान्तों का विवरणदिया गया है
  • कुल उपनिषदों की संख्या 108 है।
  • "सत्यमेव जयते" मुंडकोपनिषद से लिया गया है।
  • मैत्रायणी उपनिषद में त्रिमूर्ति और चार्तुआश्रम सिद्धांत का उल्लेख है।
वेदांग और सूत्र साहित्य: वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्यों की करती मानी जाती है
  • वेदांग सूत्र के रूप में हैं इसमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है।
  • वेदांग की संख्या 6 है-
शिक्षा- स्वर ज्ञान
कल्प- धार्मिक रीति एवं पद्धति
निरुक्त- शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र
व्याकरण- व्याकरण
छंद- छंद शाज
ज्योतिष- खगोल विज्ञान
  • सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग न होने के बावजूद उसे समझने में सहायक है।
कल्प सूत्र- ऐतिहासिक दृष्टी से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ।
श्रोत सूत्र- महायज्ञ से सम्बंधित विस्तृत विधि- विधानों की व्याख्या।
शुल्क सूत्र- यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से सम्बंधित नियम इसमें हैं। इसमें भारतीय ज्यामितीय का प्रारम्भ रूप दिखाई देता है।
धर्म सूत्र- इसमें सामाजिक धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है।
ग्रह सूत्र- परुवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बंधित विधि-विधानों की चर्चा है। होत्री- ऋग्वेद का पाठ करने वाला।
उदगात्री- सामवेद की रिचाओं का गान करने वाला।
अध्वर्यु- यजुर्वेद का पाठ करने वाला।
रिवींध- संपूर्ण यज्ञों की देख रेख करने वाला।

राजनीतिक स्थिति
ऋग्वैदिक काल मुख्यतः एक कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना प्रमुख थी। राजा को गोमत भी कहा जाता था।
  • वैदिक काल में राजतंत्रात्मक प्रणाली प्रचलित थी। इसमें शासन का प्रमुख राजा होता था।
  • राजा वंशानुगत तो होता था परन्तु जनता उसे हटा सकती थी। वह क्षेत्र विशेष का नहीं बल्कि जन विशेष का प्रधान होता था .
  • राजा युद्ध का नेतृत्वकर्ता था। उसे कर वसूलने का अधिकार नही था। जनता द्वारा स्वेच्छा से दिए गए भाग एवं बलि से उसका खर्च चलता था।
  • सभा, समिति तथा विदथ नामक प्रशासनिक संस्थाएं थीं।
  • अथर्ववेद में सभा एवं समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। समिति का महत्वपूर्ण कार्य राजा का चुनाव करना था। समिति का प्रधान ईशान या पति कहलाता था। विदथ में स्त्री एवं पुरूष दोनों सम्मलित होते थे. नववधुओं का स्वागत, धार्मिक अनुष्ठान आदि सामाजिक कार्य विदथ में होते थे।
  • सभा श्रेष्ठ लोंगो की संस्था थी, समिति आम जनप्रतिनिधि सभा थी एवं विदथ सबसे प्राचीन संस्था थी। ऋग्वेद में सबसे ज्यादा बार उल्लेख विदथ का 122 बार हुआ है।
  • राजा का प्रशासनिक सहयोग पुरोहित एवं सेनानी आदि 12 रत्निन करते थे। चारागाह के प्रधान को वाज्रपति एवं लड़ाकू दलों के प्रधान को ग्रामिणी कहा जाता था। 12 रत्निन:- पुरोहित- राजा का प्रमुख परामर्शदाता , सेनानी- सेना का प्रमुख, ग्रामीण- ग्राम का सैनिक पदाधिकारी, महिषी- राजा की पत्नी, सूत- राजा का सारथी, क्षत्रि- प्रतिहार, संग्रहित- कोषाध्यक्ष, भागदुध- कर एकत्र करने वाला अधिकारी, अक्षवाप- लेखाधिकारी, गोविकृत- वन का अधिकारी, पालागल- राजा का मित्र।
  • सैन्य संचालन वरात, गण व सर्ध नामक कबीलाई संगठन करते थे।
  • शतपथ ब्रह्मण के अनुसार अभिषेक होने पर राजा महँ बन जाता था। राजसूय यज्ञ करने वाले की उपाधि राजा तथा वाजपेय यज्ञ करने वाले की उपाधि सम्राट थी।
  • स्पर्श, गुप्तचरों को और पुरूप, दुर्गापति को कहा जाता था।
सामजिक स्तिथि :
  • ऋग्वेद के दसवें मंडल में चार वर्णों का उल्लेख मिलता है। वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी। दसवें मंडल को परवर्ती काल माना जाता है।
  • समाज पितृसत्तात्मक था। संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी।
  • परिवार का मुखिया ' कुलप' कहलाता था। परिवार कुल कहलाता था। कई कुल मिलकर ग्राम, कई ग्राम मिलकर विश, कई विश मिलकर जन एवं कई जन मिलकर जनपद बनते थे। अतिथि सत्कार की परम्परा का सबसे ज्यादा महत्व था।
  • आर्यों एवं दासों में संघर्ष चलता रहा। एक और वर्ग ' पणियों ' का था जो धनि थे और व्यापार करते थे।
  • भिखारियों और कृषि दासों का अस्तित्व नहीं था। संपत्ति की इकाई गाय थी जो विनिमय का माध्यम भी थी। सारथी और बढई समुदाय को विशेष सम्मान प्राप्त था।
  • अस्प्रश्यता, सती प्रथा, परदा प्रथा, बाल विवाह, का प्रचलन नहीं था।
  • दास प्रथा थी, इन्हें दान देने का उल्लेख मिलता है।
  • शिक्षा एवं वर चुनने का अधिकार महिलाओं को था। विधवा विवाह, महिलाओं का उपनयन संस्कार, नियोग गन्धर्व एवं अंतर्जातीय विवाह प्रचलित था।
  • वस्त्राभूषण स्त्री एवं पुरूष दोनों को प्रिया थे। जौ(यव) मुख्य अनाज था। शाकाहार एवं मांसाहार दोनों का प्रचालन था। सोम रस ( मदिरा जैसा ) का प्रचलन था।
  • नृत्य संगीत, पासा, घुड़दौड़, मल्लयुद्ध, शुइकर आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।
  • अपाला, घोष, मैत्रयी, विश्ववारा, गार्गी आदि विदुषी महिलाएं थीं।
  • ऋग्वेद में अनार्यों ( दास या दस्यु ) को मृद्धवाय ( अस्पष्ट बोलने वाला ), अवृत ( नियमों- व्रतों का पालन निहीं करने वाला), बताया गया है।
  • सर्वप्रथम ' जाबालोपनिषद ' में चरों आश्रम ब्रम्हचर्य, गृहस्त, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम का उल्लेख मिलता है। वैदिक काल में संन्यास आश्रम का उल्लेख नहीं मिलता है ।
आर्थिक स्थिति:
  • अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार पशुपालन एवं कृषि था।
  • ज्यादा पाल्तुपशु रखने वाले गोमत कहलाते थे। चारागाह के लिए ' उत्यति ' या ' गव्य ' शब्द काप्रयोग हुआ है। दूरी को ' गवयुती ', पुत्री को दुहिता ( गाय दुहने वाली ) तथा युद्धों के लिए ' गविष्टि ' का प्रयोग होता था। युद्धों से बल पूर्वक प्राप्त धन, संपत्ति का आरंभिक स्रोत था।
  • राजा को जनता स्वेच्छा से भाग या बलि देती थी।
  • आवास घास-फूस एवं काष्ठ निर्मित होते थे।
  • ऋण लेने एवं देने की प्रथा प्रचलित थी जिसे ' कुसीद ' कहा जाता था।
  • बैलगाड़ी, रथ एवं नाव यातायात के प्रमुख साधन थे।

कृषि: - सर्वप्रथम शतपथ ब्राम्हण में कृषि की समस्त प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के प्रथम और दसम मंडलों में बुआई, जुताई, फसल की गहाई आदि का वर्णन है। ऋग्वेद में केवल यव ( जौ ) नामक अनाज का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के चौथे मंडल में कृषि का वर्णन है।
  • परवर्ती वैदिक साहित्यों में ही अन्य अनाजों जैसे गेहूं ( गोधूम ), ब्रीही ( चावल ) आदि की चर्चा की गई है। काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचे जाने का, अथर्ववेद में वर्षा, कूप एवं नाहर का तथा यजुर्वेद में हल का ' सीर ' के नाम से उल्लेख है। उस काल में कृत्रिम सिंचाई की व्यवस्था भी थी।

पशुपालन: पशुओं का चारण ही उनकी आजीविका का प्रमुख साधन था। गाय ही विनिमय का प्रमुख साधन थी। ऋग्वैदिक काल में भूमिदान या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व की धारणा विकसित नही हुई थी।

व्यापार: आरम्भ में अत्यन्त सीमित व्यापार प्रथा का प्रचालन था। व्यापार विनिमय पद्धति पर आधारित था। समाज का एक वर्ग 'पाणी' व्यापार किया करते थे।
राजा को नियमित कर देने या भू-राजस्व देने की प्रथा नहीं थी। राजा को स्वेच्छा से बलि या भाग या नजराना दिया जाता था। पराजित कबीला भी विजयी राजा को भेंट देता था। लूट में प्राप्त धन को राजा अपने अन्य साथियों के बीच बांटता था।

धातू एवं सिक्के : ऋग्वेद में उल्लेखित धातुओं में सर्वप्रथम धातू, अयस ( ताँबा या कांसा ) था। वे सोना ( हिरव्य या स्वर्ण ) एवं चांदी से भी परिचित थे। लेकिन ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख नहीं है। ' निष्क ' संभवतः सोने का आभूषण या मुद्रा था जो विनिमय के काम में भी आता था।

उद्योग : ऋग्वैदिक काल के उद्योग घरेलु जरूरतों के पूर्ति हेतु थे। बढ़ई एवं धूकर का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्व था। अन्य प्रमुख उद्योग वस्त्र, बर्तन, लकड़ी एवं चर्म कार्य था। स्त्रियाँ भी चटाई बनने का कार्य करतीं थीं।

धार्मिक स्थिति
  • आर्य बहुदेववादी होते हुए भी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे।
  • यहाँ प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण कर उनकी पूजा की जाती थी। वे मुख्या रूप से प्रकृति के पूजक थे। वैदिक धर्म पुरूष प्रधान धर्म था। आरम्भ में स्वर्ग या अमरत्व की परिकल्पना नहीं थी।
  • वैदिक धर्म पुरोहितों से नियंत्रित धर्म था। पुरोहित देवता एवं मानव के बीच मध्यस्थ था। नरकलोक की परिकल्पना अथर्ववेद में की गई है।
  • वैदिक देवताओं का स्वरुप महिमामंडित मानवों का है। देवताओं की परिकल्पना मानव एवं पशु रूप में की गई थी। ऋग्वेद में 13 देवतों का उल्लेख है।




Wednesday, August 27, 2008

सिन्धु घाटी की सभ्यता ( Indus valley Civilisation )

भोगोलिक क्षेत्रफल : क्षेत्रफल 1299600 वर्ग कि. मी., आकार त्रिभुजाकार तथा इसके अंतर्गत पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, गुजरात, राजिस्थान, हरियाणा व उ. प्र. के कुछ भाग आते हैं। पूर्व से पश्चिम तक 1600 कि.मी. तथा उत्तर सेस दक्षिण तक 1100 कि.मी. तक विस्तार है।


सर्वप्रथम हड़प्पा नमक स्थल से जानकारी मिलने के कारण इसे "हड़प्पा" सभ्यता नाम दिया गया।
  • यह एक कांस्य युगीन सभ्यता है जिसे आद्य इतिहास के अंतर्गत मन जाता है।
  • हड़प्पा टीले का सर्वप्रथम उल्लेख 1826 . में चाल्र्समैसन ने किया था, परन्तु इस सभ्यता का रहस्योदघाटन1856 . में कराची और लाहौर के बीच रेल पटरी बिछाने के दौरान जॉनब्रंटन और विलियम ब्रंटन ने किया1922 . में मोहनजोदाडो की खुदाई के आधार पर 1924 . में भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक जॉन मार्शल ने इस सभ्यता की घोषणा की
राजनीतिक स्थिति: कोई लिखित साक्ष्य न मिलने के कारन राजनीतिक स्थिति की ठीक जानकारी नहीं मिल पाती परन्तु पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर हंटर महोदय ने यहाँ जनतांत्रिक व्यवस्था का अनुमान लगाया है।
  • प्रशासन में पुरोहित एवं वणिक वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
  • उत्तर में हड़प्पा एवं दक्षिण में मोहनजोदाडो दो राजधानियां भी थी।
सामाजिक स्थिति: सैन्धव समाज मातृ प्रधान था। नगरों के भग्नावेशों से पता चलता है कि शहरों के लोग विलासितापूर्ण जीवन जीते थे तथा भिन्न भिन्न वर्गों का अस्तित्व था। समाज में व्यापारी वर्ग सबसे प्रभावशाली था। कृषक, शिल्पकार, मजदूर, सामान्य लोग थे तथा चिकित्सक, पुरोहित, अधिकारी शिक्षित वर्ग थे।
  • हड़प्पा की श्रमिक बस्तियों के अवशेष यहाँ दास प्रथा का संकेत देते हैं।
  • शाकाहार तथा मांसाहार दोनों का प्रचलन था। गेहूं, जौ, खरबूज, तरबूज, नारियल, नीबूं, अनार, भेड़, बकरी, सूअर, मुर्गी, बत्तख, आदि का उल्लेख मिलता है।
  • सूती एवं उनी वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था।
  • काजल, पाउडर, लिपिस्टिक, दर्पण आदि साक्ष्यों से इनके सौंदर्य प्रियता की जानकारी मिलती है ।
  • मनोरंजन के लिए नृत्य, संगीत, पासा, शिकार, मछली पकड़ना आदि से परिचित थे।
  • योद्धा वर्ग के अस्तित्व का साक्ष्य नहीं मिला हैदस्तकारों में कुम्हारों को समाज में विशेष स्थान प्राप्तथाहड़प्पा के दुर्ग के बाहर मिले सार्वजनिक अन्नागार के पास मिले घटिया प्रकार के आवासों से विदितहोता है किउनमे दास या मजदूर रहते होंगेकालीबंगा तथा लोथल से ऐसे आवास नहीं मिले हैं
आर्थिक स्थिति:
कृषि : सैन्धव लोगों का मुख्या पेशा कृषि कार्य था। गेंहू और जौ प्रमुख फसलें तथा मटर, सरसों, तिल, आदि अन्य फसलें थीं।
  • चावल का अवशेष लोथल एवं रंगपुर से मिला हैलोथल से आटा पीसने की चक्की मिली है
  • कृषि कार्य हेतु प्रस्तर एवं कांस्य औजारों का प्रयोग किया जाता था। कालीबंगा से जुते हुए खेत एवं बनवाली से मिटटी का हल जैसा खिलौना प्राप्त हुआ है
  • कपास की खेती सर्वप्रथम यहीं शुरू की गयी।
पशुपालन: पशुपालन भी महत्वपूर्ण पेशा था। बैल, भैंस, गाय, भेड़, बकरी, कुत्ते, गधे, खच्चर आदि जानवर पाले जाते थे। लोथल एवं रंगपुर से घोड़े की मूर्तियाँ तथा सुरकोतदा से घोड़े के अस्थिपंजर प्राप्त हुए हैं। परन्तु घोड़े पालने का स्पष्ट साक्ष्य नही मिला है। हाथी को पालतू बना लिया गया

उद्योग:
हड़प्पा सभ्यता का प्रमुख उद्योग सूती वस्त्र निर्माण था। मुद्रा निर्माण, मूर्ति निर्माण, आभूषण एवं मनके बनाने के साक्ष्य भी मिलते हैं। बर्तन निर्माण भी अत्यन्त महत्वपूर्ण व्यवसाय था।
विशाल इमारतों से राजगीरी का प्रमाण मिलता है। मोहनजोदारो से ईंट भट्टों के अवशेष मिले हैं। इस सभ्यता के लोगों को लोहे का ज्ञान नहीं था। नाव बनाने के साक्ष्य मिले हैं। धातुओं से लघु मूर्तियां बनाने के लिए मोम-सांचा विधि प्रचलित थी। वे तांबा में टिन मिलाकर कांस्य बनाना जानते थे।
मनका उद्योग के प्रमुख केन्द्र लोथल एवं चहुन्दरो थे।
व्यापार: देशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यवसाय उन्नत अवस्था में थे। व्यापार विनिमय प्रणाली पर आधारित थी तथा व्यापारिक सम्बन्ध राजस्थान, अफगानिस्तान, ईरान, एवं मध्य एशिया के साथ था। गुजरात से चावल, लोथल एवं सुरकोतदा से कपास अन्य क्षेत्रों में भेजे जाते थे। नगरों से आभूषण, औजार, मनका, कपड़े आदि अन्य क्षेत्रों में भेजे जाते थे।
  • तौल की इकाई 16 के अनुपात में थीं। बांटों की तौल का अनुपात 1, 2, 4, 8, 16, 32......... आदि था। मोहनजोदारो से सीप एवं लोथल से हाथी दांत का पैमाना मिला है।
  • देशी व्यापार के परिवहन का साधन बैलगाड़ी व पशु तथा विदेशी व्यापार मुख्यतः नौ परिवहन द्वारा होता था।
  • बंदरगाह या व्यापार तंत्र से जुड़े प्रमुख नगर थे- बालाकोट, डाबरकोट, सुत्कांगेडोर, सोत्काकोह, मंडीगाक, मालवान, भगतराव तथा प्रभासपाटन।
  • विदेशी व्यापार: मेसोपोटामिया और सैन्धव सभ्यता के विनिमय स्थल दिलमुन और माकन थे। दिलमुन संभवतः बहरीन द्वीप तथा माकन "ओमान" था। मेसोपोटामियाई वर्णित शहर "मेलुहा" सिंध क्षेत्र का प्राचीन नाम है।

साक्ष्य: मेसोपोटामियाई( ईराक) बस्तियों के साक्ष्य सैन्धव स्थलों में नहीं मिले हैं, जबकि वहां पर यहाँ के अनेक साक्ष्य मिले हैं। वहां से आयातित वस्तुएं थीं- ऊनी कपड़े, खुशबूदार तेल आदि। जल्दी नष्ट हो जाने वाली इन के कारण संभवतः इनके अवशेष सैन्धव नगरों से नहीं मिले हैं।
  • मोहनजोदारो तथा हड़प्पा से बेलनाकार फारस की मुद्राएँ, मोहनजोदारो से मानव एवं बाघ के लड़ाई के चित्र वाली मुहर तथा हड़प्पा से मानव एवं बैल युद्ध की क्रीट- कला से सम्बंधित चित्र वाली मुहर मिली है।
  • तेल अंगराब से ककुदमान वृषभ की आकृति वाले मिट्टी के टुकड़े, नाल सूसा से साँप को पकड़े गरुड़ का चित्र, तथा सुमेरिया के राजा गुंगूनुम को एक कीलाक्षर पट्टिका पर हड़प्पा संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं .
  • समुद्री मार्ग लोथल में खम्बात की खाड़ी से अरब सागर होते हुए फारस की खाड़ी तथा अंत में फुरात नदी के आस-पास पहुँचता था ।
मुहरें तथा लिपि: आमतौर पर मुहरें चौकोर होती थीं। बेलनाकार, वृत्ताकार, आयताकार भी मिलती हैं। अधिकांश सेलखड़ी की बनीं थीं, परन्तु कुछ गोमेद, मिट्टी व नाचर्ट की भी बनी थीं












  • मुहरों पर सर्वाधिक चित्र एक सींग वाले सांड (वृषभ) की है। अन्य चित्रों में कुत्ते, भैंस, गैंडा, हिरन, बाघ, हाथी आदि हैं। कुत्ते का चित्रांकन सर्वाधिक हुआ है, लेकिन पक्षियों का चित्र नही मिला है। ऊँट का अंकन भी नही हुआ है। मानव एवं अर्ध मानव के चित्र मिले हैं।
  • लोथल एवं देशलपुर से तांबे की मुहरें मिली हैं। सिन्धु लेख अधिकांशतः मुहरों पर मिले हैं। मुहरों का उपयोग विदेशों में निर्यातित वस्तुओं के गाँठ पर मुहर लगाने के लिए जाता था।
  • लिपि भाव चित्रात्मक है तथा प्रत्येक अक्षर किसी ध्वनि भाव या वास्तु का सूचक है। यह क्रमशः दाईं ऑर से बाईं ऑर तथा बाईं ऑर से दाईं ऑर लिखी जाती थी, इस पद्दति को 'बोस्ट्रोफेदोन' कहा गया है। लिपि का सबसे ज्यादा चिन्ह 'U' आकार का तथा सबसे ज्यादा प्रचलित चिन्ह 'मछली' का है।
कला तथा शिल्प: लोग कलाकृतियों के निर्माण के लिए धातु एवं पत्थर का उपयोग करते थे। सबसे प्रसिद्ध कलाकृति है- मोहनजोदारो से प्राप्त नृत्य की मुद्रा में नग्न स्त्री की कांस्य प्रतिमा। अन्य प्रसिद्ध कलाकृतियाँ हैं- हड़प्पा एवं चन्हुदडो से प्राप्त कांसे की गाडियाँ, मोहनजोदारो से प्राप्त दाड़ी वाले सिर की पत्थर की मूर्ति (संभवतः पुजारी), स्वस्तिक चिन्ह, मोहनजोदारो से प्राप्त हाथी दांत पर मानव चित्र। पकी मिट्टी की मूर्तियाँ (टेरीकोटा) मिली हैं। सिंह का चित्रण या मूर्तियाँ नही मिली हैं। बर्तनों पर वनस्पति का चित्रांकन पशुओं की अपेक्षा ज्यादा है। मिट्टी के बर्तन में एकरूपता है। ये बर्तन सादे हैं और उन पर लाल पट्टी के साथ-साथ काले रंग की चित्रकारी मिलती है। बर्तनों पर मुद्रा के निशान भी हैं। जिससे ज्ञात होता है कि उन बर्तनों का व्यापार भी होता था।

नगर योजना: हड़प्पा संस्कृति एक नगरीय संस्कृति थी। इस संस्कृति कि महत्वपूर्ण विशेषता इसकी नगर योजना प्रणाली थी। इस सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर हैं।
सामान्यतः इस सभ्यता के नगर दो भागों में बंटे थे। ऊंचे टीले पर स्थित प्राचीर युक्त बस्ती नगर दुर्ग और इसके पश्चिमी ओर के आवासीय क्षेत्र निचला नगर होता था।
  • दुर्ग में शासक वर्ग के लोग रहते थे तथा निचले नगर में सामान्य लोग रहते थे।
  • भवन निर्माण में पक्की एवं कच्ची दोनों तरह कि ईंटों का प्रयोग होता था। भवन में सजावट में आदि का अभाव था।
  • ईंटों के निर्माण का निश्चित अनुपात था 4:2:1
  • प्रत्येक मकान में स्नानागार, कुएं एवं गंदे जल की निकासी के लिए नालियों का प्रबंध था।
  • सड़कें कच्ची थीं और प्रायः एक दुसरे को समकोण पर काटती थीं तथा नगर को आयताकार खंडों में विभक्त करतीं थीं।
  • मकानों के दरवाजे मध्य में न होकर एक किनारे पर होते थे।
  • हड़प्पा संस्कृति की जल निकास प्रणाली अद्वतीय थी। समकालीन किसी भी सभ्यता ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्व नही दिया, जितना कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने दिया।
  • हड़प्पाई जुड़ाई के लिए मिट्टी के गारे तथा जिप्सम के मिश्रण दोनों का उपयोग करते थे।
  • इस सभ्यता के नगरों के भवन जाल की तरह विन्यस्त थे।
धार्मिक जीवन: हड़प्पा संस्कृति के लोग मानव, पशु तथा वृक्ष तीनों रूपों में भगवान की उपासना करते थे। हड़प्पा की धार्मिक और हिंदू धर्म की जानकारी लगभग समान है।
  • मातृदेवी की उपासना प्रमुख था। एक श्रंगी पशु का चित्र जो सबसे अधिक प्राप्त होता है शायद बहुत पवित्र पशु था।
  • मोहनजोदारो से प्राप्त पशुपति मुहर से पशुपति पूजा की जानकारी मिलती है।
  • लिंग पूजा के प्रचुर साक्ष्य मिले हैं। पत्थर पर योनी आकृतियों का अंकन भी हुआ है जिनकी पूजा जनन शक्ति के रूप में की जाती थी।
  • पूज्य पशुओं में कूबड़ वाला सांड तथा वृक्षों में पीपल महत्वपूर्ण थे।
  • मन्दिर के अवशेष नहीं मिले हैं।
  • लोथल एवं कालीबंगा से हवन कुंडों एवं यज्ञवेदियों के साक्ष्य मिले हैं जो कि अग्नि पूजा का प्रमाण देते हैं। मोहनजोदारो के विशाल स्नानागार को धार्मिक महत्व प्राप्त था। उसके पास बनी अन्य विशाल ईमारत शायद पुरोहित का मठ था।
  • लोग भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र में विश्वास करते थे। कई मुहरों में एक त्रिमुखी देवता जिसके सिर पर भैंस के सींग का मुकुट है, जो योगी कि मुद्रा में बैठा हुआ है। यह देवता बकरी, हाथी, शेर, तथा हिरण से घिरा हुआ है। इसे पशुपति शिव माना जाता है।

दाह संस्कार: शावाधान के मुख्यतः तीन तरीके प्रचलित थे।
  1. पूर्ण शावाधान: इसमें संपूर्ण शव को भूमि दफना दिया जाता था।
  2. आंशिक शावाधन: इसमें पशु-पक्षियों के खाने के बाद शेष बचे भाग को भूमि में दफना दिया जाता था।
  3. दाह संस्कार: इसमें शव को पूर्णतः जलाया जाता था।